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शिक्षा और जागरण

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :197
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3647
आईएसबीएन :00000

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शिक्षा और जागरण पर आधारित पुस्तक...

Shiksha aur jagaran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘‘उनके शब्द निपट जादू हैं।’

--अमृता प्रीतम

‘‘भारत ने अब तक जितने भी विचारक पैदा किये हैं, वे उनमें सबसे मौलिक, सबसे उर्वर, सबसे स्पष्ट और सर्वाधिक सृजनशील विचारक थे। उनके जैसा कोई व्यक्ति हम सदियों तक न देख पाएँगे। ओशो के जाने से भारत ने अपने महानतम सपूतों में से एक खो दिया है। विश्वभर में जो भी खुले दिमाग वाले लोग हैं, वे भारत की इस हानि के भागीदार होंगे।’’


खुशवंतसिंह



शिक्षा और जागरण



मनुष्य निरन्तर ही सोचता रहा है कि कैसे आमूल जीवन परिवर्तित हो। सोचने के कारण भी हैं। जैसा जीवन है, उसमें सिवाय दुख, पीड़ा, अशांति, संघर्ष  और कलह के कुछ भी नहीं है। जीवन के इस दुखद रूप ने ही जीवन को रूपान्तरित करने की प्रेरणा भी पैदा की है। शायद ही ऐसा कोई क्षण हो जब मनुष्य आनंद को उपलब्ध हो पाता है। आनंद की आशा लगी रहती है कि कल मिलेगा, और आज उसी आशा में दु:ख में व्यतीत करते हैं। और कल जब आता है तो उतना ही दु:खी सिद्ध होता है जितना आज। आशा फिर आगे सरक जाती है। ऐसे जीवन पर आदमी उस सुख की आशा में जीता है और पाता निरंतर दुख है। इस आशा के कारण दुख को झेल भी लेता है। लेकिन आनन्द इस तथाकथित जीवन में दिखाई नहीं पड़ता। या तो यह हो सकता है कि जीवन में आनंद की खोज की गलत है। या तो हो सकता है कि जैसा जीवन है, इस जीवन में आनन्द नहीं है, इसलिए जीवन को परिवर्तित करने की, ट्रांसफार्म करने की खोज सार्थक है।


ओशो

1
जटिल धारणाएँ नहीं, सरल जीवंत अनुभव



शताब्दियों से विगत जीवन के बारे में जो धारणाएं बन गयी हैं, उनसे कैसे मुक्ति मिलेगी ? क्या नयी शिक्षा- जैसे आपने सुझाव दिया है- जीवन को समझने में, उसके उद्देश्य का समझने में सहयोगी हो सकती है ?


अतीत ने संस्कारित किया है, आदमी को बहुत-सी गलत धारणाएं दी हैं। मजे की बात तो यह है कि गलत धारणाएं गलत होती ही हैं; असल में, धारणा मात्र ही गलत होती है। क्योंकि सब तरह की धारणा हमें पूर्ण को देखने में बाधा डालती है-किसी भी तरह की धारणा !

धारणा का मतलब होता है अंश; धारणा का मतलब होता है, खिड़की- जिससे हम देखेंगे। आकाश को खिड़की से देखा जा सकता है, लेकिन वह आकाश नहीं हैं। तो चौखटे में कहीं आकाश जड़ा जा सकता है ? और चौखटे से देखा गया आकाश बुनियादी रूप से झूठ है। क्योंकि आकाश को कोई चौखटा ही नहीं हैं। आकाश का अर्थ है- विस्तार, अनंत विस्तार। और खिड़की से जो दीखता है, वह सीमित टुकड़ा होता है। तो वह तो वैसा ही है, जैसे हमने एक पेंटिग में आकाश देखा हो। वह आकाश वह आकाश नहीं है, जो खुले आकाश के नीचे खड़े होकर दिखायी पड़ता है। जीवन भी अनंत है, आकाश की भांति ही। इसलिए कोई भी धारणा बाधा देती है। कोई भी कंसेप्ट चौखटा बन जाता है।

अतीत ने मनुष्य को बहुत से चौखटे दिये, बहुत से पैटर्न, ढांचे, धारणाएं दीं। जीवन को कैसे जियें, यह भी बताया है। कौन-सा जीवन का रूप ठीक है, कौन-सा गलत है, यह भी बताया है। क्या पाप है, क्या पुण्य है, यह भी समझाया है। क्या करना, क्या नहीं करना, यह भी बताया है। कौन-सा लक्ष्य पाने योग्य है, कौन-सा छोड़ने-योग्य है, यह सब बता दिया है। इस सब बताने में यह आदमी मर गया है। इस सब बात बताने में इतना बोझिल हो गया है कि जीना-जीना ही असंभव है। तो हम एक तरह का अभिनय कर रहे हैं, जी नहीं रहे हैं।

यह सारा बताना बहुत महंगा पड़ गया है, यह सिखावट बहुत महंगी पड़ गयी है; और आदमी जी भी नहीं पाता। प्रेम कैसे करना है, यह भी बताया है; और तब प्रेम करना असंभव हो जाता है। क्योंकि जीवन में जो भी गहरा है, वह सदा स्पॉन्टेनियस है; वह बताने से नहीं होता है। वह सदा सहज स्फुरित होता है।
मैं चाहता हूँ कि एक-एक व्यक्ति को यह खयाल आ जाये कि ढाँचे, चौखटे में जीवन के आकाश को नहीं उतार सकते हैं। और यह खयाल आ सकता है, क्योंकि प्रत्येक इतने दुख में जी रहा है, इतनी परेशानी में, इतनी चिन्ता में जी रहा है कि उसका कोई हिसाब नहीं है। और अगर खयाल आ जाये कि घर के बाहर, दीवारों के बाहर बड़ी खुली हवा है; सूरज की रोशनी और आकाश है; और बहुत फूल खिले हैं; बहुत संगीत है- तो इस घर के भीतर, इस धुएं में, इस बंद दीवार में, इस गंदगी में बैठने का कोई कारण नहीं। चाहे इस घर में कोई हजारों वर्ष से रह रहा हो तो भी फर्क नहीं पड़ता।

एक बार यह खयाल आ जाये, यह रिमेंबरिग आ जाये कि मैं कहीं इन दीवारों में घिरे होने की वजह से तो दुख में नहीं हूं तो आदमी तत्काल, बाहर हो जाता है। यानी बाहर होने में ऐसा नहीं है कि हजारों वर्षों में ढांचे में ढले हैं तो बाहर होने में कठिनाई होगी। एक दफा स्मरण आ जाये, यह अवेयरनेस एक दफा खयाल में आ जाये कि सारा दुख, सारी चिन्ता इस घेरे की वजह से है तो बाहर निकलना एक क्षण में हो जाता है। और हजारों लाखों वर्षों की परंपरा भी बाहर निकलने से रोक नहीं सकती। एक सेकेंड में यह निकलना हो जायेगा।

इसलिए यह बात सच है कि आदमी धारणाओं में घिरा है, बंद है, पुराने सिद्धांतों से बंधा है, शास्त्रों में बंधा है। सब बता दिया है उसे, पुराने गुरुओं ने बहुत गुलामी पैदा की है। वह सारी गुलामी उसकी छाती पर है। लेकिन, यह सारी गुलामी उसने स्वीकार की है, इसलिए है ! उसने पकड़ी है, इसलिए है ! और पकड़ी उसने इसलिए है कि इससे आनंद मिलेगा, नहीं तो वह पकड़ता भी नहीं इसको। और आनंद मिला नहीं, इस गुलामी को तुड़वाया जाना बहुत कठिन नहीं है।

एक दफा खयाल भर दिलाने की बात है कि यही पकड़ तुझे परेशान किये है। बाहर आओ और देखो। तो कोई धारणा हमारी आत्मा नहीं बन गयी है। कोई धारणा हमारी आत्मा नहीं है और कोई खिड़की हमारे प्राण नहीं है। सिर्फ हम कमरे के भीतर हैं तो खिड़की बेचारी हमको बांधे हुए है। हम कमरे के बाहर हो जायें तो खिड़की चिल्लायेगी नहीं, पुकारेगी नहीं, रोकेगी नहीं, खिड़की अपनी जगह पड़ी रहेगी।

ठीक ऐसा ही हमारे चित्त पर जो ढांचा है, वह हमारी आत्मा का हिस्सा नहीं हो गया है, हो ही नहीं सकता। हम किसी भी क्षण बाहर आ सकते हैं। यह बिलकुल ‘सडनली’ हो सकता है। यह कोई ऐसा भी नहीं है कि कोई श्रम ही करे तब हो। यह एक मिनट, एक क्षण में भी हो सकता है। और अकसर एक ही क्षण में होता है और जब होता है, एक ही क्षण में होता है। एक दफा खयाल आ जाये कि हो सकता है, और आदमी लौट पड़ता है, और बाहर हो जाता है।

यह जो कठिनाई है, कठिनाई इसी बात की है कि उसी भ्रान्ति में हम जिये चले जाते हैं, जो हमारे दुख का कारण है। उसे हम अपने आनंद की खोज का आधार बनाये हुए हैं। और वही जूता खील दे रहा है, और पैर को घाव बना रहा है। और हम उस जूते को इसलिए पहने हुए हैं कि इस जूते के बिना चलेंगे कैसे ? और वह जूता चलने नहीं दे रहा है ! उसकी खील हमारी जान लिए ले रही है। लेकिन हमको खयाल है कि जूते के बिना पैर तो बड़ा असुरक्षित हो जायेगा। तो खील वाले जूते को पहने हुए चले जा रहे हैं- यह स्मरण भर दिलाने की बात है।

और इसलिए मेरा काम किसी गुरु का काम नहीं है। मेरा काम कोई उपदेशक का भी काम नहीं है, क्योंकि न मैं कोई नयी धारणा देना चाहता हूं, न कोई चौखटा देना चाहता हूं। मेरा काम एक जगाने वाले के काम से ज्यादा नहीं है कि मैं किसी के घर के द्वार के सामने चिल्लाऊं कि बाहर सूरज निकला है; तुम नाहक अंधेरे में बैठे हुए हो; एक दफा आकर बाहर देखो। देखो कोई उसे बांधे हुए नहीं है। वह बैठा है तो बंधा है। यानी बंधा हुआ होना ही हमारा निर्णय है। इसलिए एक सेकेंड में टूट सकता है। एक सेकेंड की भी जरूरत नहीं है।

तो दुनिया भर में अब ऐसी बात एक-एक घर, आदमी तक पहुंचाने की जरूरत है कि उसे सिर्फ घर के बाहर की खबर दिला दें। और जब भी दुनिया में कोई, जिनको हम सच में शिक्षक कहें, पैदा हुए हैं, उन्होंने कुछ और नहीं किया। उन्होंने सिर्फ हिलाने का, जगाने का और डुलाने का काम किया है। उन्होंने कई सिद्धान्त नहीं दिये, कोई शास्त्र नहीं दिये, क्योंकि सब शास्त्र और सिद्धांत भीतर रखने का काम करते हैं। वे फिर धारणाएं बन जाते हैं। तो पुरानी धारणा छोड़कर कोई नयी धारणा नहीं दे देनी है।

नहीं, यह खयाल, यह स्मृति, यह अवेकनिंग कि किसी धारणा की मनुष्य को जरूरत नहीं है। और यह साहस देना है कि तुम जियो और तुम भयभीत मत होओ जीवन से। जीवन तुम्हें जहां ले जाये, तुम निर्भय होकर जाओ। और जीवन हर जगह तुम्हें कीमती अनुभव देगा। और जहां सारी दुनिया कहती है, मत जाना, रुकना, अगर जीवन कहता हो तो वहां भी जाना, क्योंकि वहां से गुजरकर भी तुम दूसरे आदमी होकर निकलोगे। तुम वही आदमी नहीं रह जाओगे जो तुम पहले थे। और अगर कुछ गलत है तो वह गलत गिर जायेगा तुम्हारे अनुभव से। और जो गलत अनुभव से न गिरता हो तो वह और किसी से गिर नहीं सकता।

तो जीवन को उसके सब रूपों में अनुभव करना है। और सारा भय छोड़ देना है। इसी तरह का मैं शिक्षण चाहता हूं, जो नयी धारणा न देता हो; जो सिर्फ जीने की हिम्मत, बल, आकर्षण, चुनौती, निमंत्रण देता हो।
धारणा न देता हो कि तुम ऐसे जीना, बल्कि जीने का निमंत्रण देता हो कि तुम जीना तो पूरी तरह से जीना, तुम फिक्र छोड़कर जीना।

और अगर तुम पूरी तरह जीने का ही सिर्फ ध्यान रखे तो जो व्यर्थ है, वह अपने आप छूट जायेगा; जो सार्थक है, वह बढ़ता चला जायेगा, वह गहरा होता चला जायेगा।

इसका मतलब यह है कि जिस तरह इकोनॉमिक्स में एक इशू ऐसा होता है, जैसे लॉ ऑफ डिमिनिशिंग अप्लाय होती है। तो आदमी के माइंड को भी हम उस लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न, क्रिटिकल प्वाइंट पर पहुँचा दे जहां से कि वह फिर से जाग्रत हो जाये और उससे अवेकनिंग आ जाये और समझने लगे।


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